एलै नगाड़ा ल' क इप्टा मैदान मे


IPTA logo
IPTA : A Movement
इप्टा : एक परिचय
लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटक लेखक आओ, हाथ से और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वंय को आजादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो”.

25 मई 1943 को मुंबई के मारवाड़ी हाल​ में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने इप्टा की स्थापना के अवसर अध्यक्षता करते हुए ये आह्वान किया.

रंग दस्तावेजके लेखक महेश आनंद के अनुसार इप्टा के रूप में ऐसा संगठन बना जिसने पूरे हिन्दुस्तान में प्रदर्शनकारी कलाओं की परिवर्तनकारी शक्ति को पहचानने की कोशिश पहली बार की. कलाओं में भी आवाम को सजग करने की अद्भूत शक्ति है, को हिंदुस्तान की तमाम भाषाओं में पहचाना गया. ललित कलाएं, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्यरूप, इनके कर्ता, राजनेता और बुद्धिजीवी एक जगह इकठ्ठे हुए, ऐसा फिर कभी नहीं हुआ.” 

इसका नामकरण प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया था. पहले महासचिव अनिल डी. सिल्वा ने उद्देश्य निश्चित किया जनता में विश्व की प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिलकर साहस और निश्चय के साथ अपने दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष का उत्साह पैदा करेतथा उसमें यह विश्वास बनाये रखे कि एकजुट ताकत के रूप में वह अजेय है”. इसका नारा था पीपल्स थियेटर स्टार्स पीपल

बंगाल कल्चरल स्क्वाड और सेंट्रल ट्रुप
बंगाल-अकाल पीड़ितो की राहत जुटाने के लिये स्थापित बंगाल कल्चरल स्कवाडके नाटकों जबानबंदीऔर नबान्नकी लोकप्रियता ने इप्टा के स्थापना की प्रेरणा दी. मुंबई तत्कालीन गतिविधियों का केंद्र था लेकिन बंगाल, पंजाब, दिल्ली, युक्त प्रांत, मलाबार, कर्णाटक, आंध्र, तमिलनाडु में प्रांतीय समितियां भी बनी.
स्क्वाड की प्रस्तुतियों और कार्यशैली से प्रभावित होकर बिनय राय के नेतृत्व में ही इप्टा के सबसे सक्रिय समूह सेंट्रल ट्रुपका गठन हुआ. दल के सदस्य एक साथ रहते जो भारत के विविध क्षेत्रों विविध शैलियों से संबंधित थे. इनके साहचर्य ने स्पीरीट आफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मोर्टल’, कश्मीर आदि जैसी अद्भूत प्रस्तुतियों को जन्म दिया. जिसने भारत के अनेक हिस्सों की यात्रा की.

इप्टा में कौन थे?
एम. के रैना. लिखते हैं कि उस दौर में नाटक संगीत, चित्रकला, लेखन, फिल्म से जुड़ा शायद ही कोई वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी होगा जो इप्टा से नहीं जुड़ा होगा’.

पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दमयंती साहनी, चेतन और उमा आनंद, हबीब तनवीर, शंभु मित्र, जोहरा सहगल, दीना पाठक इत्यादि जैसे अभिनेता, कृष्ण चंदर, सज्जाद ज़हीर, अली सरदार ज़ाफ़री, राशिद जहां, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे लेखक, शांति वर्द्धन, गुल वर्द्धन, नरेन्द्र शर्मा, रेखा जैन, शचिन शंकर, नागेश, जैसे नर्तक रविशंकर, सलिल चौधरी, जैसे संगीतकार, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मखदुम मोहिउद्दीन, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन जैसे गीतकार, विनय राय, अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख, दशरथ लाल जैसे लोक गायक, चित्तो प्रसाद, रामकिंकर बैज जैसे चित्रकारपी.सी. जोशी जैसे नेता.

इप्टा का बिखराव
आजादी के बाद से ही इप्टा की सरकार ने निगरानी शुरू कर दी. इसके नाटकों को प्रतिबंधित किया गया, सेंसर और ड्रामेटिक पर्फ़ार्मेंस एक्ट का डंडा चला कर कई प्रदर्शनों और प्रसार को रोका गया. सदस्य भूमिगत होने लगे. ऐसे माहौल में इलाहाबाद कांफ्रेस में बलराज साहनी ने व्यंग्य नाटक जादू की कुर्सीका मंचन किया जिसमें सत्ता के चरित्र की तीखी आलोचना थी.
पी.सी. जोशी के बाद बी.टी. रणदीवे भाकपा के महासचिव बने. पार्टी की नीतियां और इप्टा के प्रति उसका रवैया बदला. इप्टा में बहुत से ऐसे लोग भी थे जो पार्टी मेंबर नहीं थे. उन्हें अब बंधन का अनुभव हुआ और वे इप्टा छोड़ने लगे. शान्तिवर्धन, रविशंकर, अवनिदास गुप्त, शचिन शंकर, नरेन्द्र शर्मा ने सेंट्रल टृप छोड़ दिया था जिसे अंततः मार्च 1947 में बंद कर दिया गया था.
हबीब तनवीर के अनुसार सन 1948 की इलाहाबाद कांफ़्रेंस इप्टा की मौत थी जिसका जनाजा निकला 1956 में. कई बार हैरत होती है क्या काम किया था इप्टा ने और कैसे खतम हो गया चुटकियों में”.

रूस्तम भरूचा रिहर्सल आफ रिवोल्युशनमें लिखते हैं इप्टा पहला राष्ट्रीय संगठित आंदोलन था जिसमें भारतीय रंगकर्मियों ने पहली बार सहभागिता से फ़ासीवाद और साम्राज्यवाद विरोध की ठोस कलात्मक अभिव्यक्ति की और समकालीन रंगमंच के सस्ते व्यावसायिक चमक दमक के विरूद्ध प्रतिक्रिया की. इसने रंगमंच के प्रति उपलब्ध समझ को बदला और इसे अभिजात वर्ग के सीमित हिस्से से निकालकर बड़े तबके तक पहूंचा दिया”.
इप्टा ने पारंपरिक रूपों तमाशा, जात्रा, बर्रकथा को नाट्य भाषा में शामिल किया. किसानों, मजदूरों के संघर्षों, हिंदू मुस्लिम एकता के प्रति जागरूकता को अपने विषय में शामिल किया और समूह गान, नृत्य नाटिका, मंच नाटक, नुक्कड़ नाटक के जरिये जनता पहूंची.

आज़ादी के बाद जो पुनर्गठन हुआ उसमें कई लोग इसलिए भी शामिल नहीं हुए कि इप्टा से सीख एवं प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी संस्थाएं भी शुरू कर दी थीं। वर्तमान में इससे पैदा हुए अनगिनत लोग विभिन्न प्रमुख संगठनों, संस्थानों आदि के विभिन्न पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं अथवा संगठन चला रहे हैं, परन्तु अफसोस यह है कि इस संगठन को सहयोग देना तो दूर उन्हे अब इसका नाम लेने में भी शर्म आती है।

इप्टा का पुनर्गठन
राजनीतिक रंगमंच और वैकल्पिक जन मनोरंजन की इस विरासत की तरफ़ अस्सी के दशक में युवा रंगकर्मी आकर्षित हुए. पटना के रंगकर्मी जावेद अख्तर खां याद करते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ का उभार, आपातकाल के बाद के माहौल, नुक्कड़ नाटकों की लोकप्रियता ने यह जरूरत महसूस कराई की इप्टा का पुनर्गठन होना चाहिये. 1985 में आगरा और 1986 में हैदराबाद में कांफ़्रेंस हुआ. इसके बाद कई शहरों में इसकी इकाईयों का गठन हुआ. अभी इप्टा बहुत से शहरों में काम कर रही है. साथ ही बिहार के लगभग सभी जिलों में इसकी शाखा सक्रिय है तथा जन जागरण के साथ वहां के स्थानीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं के विकास एवं सम्मान के लिए कार्यरत हैं।

इप्टा में महिलाएंः मेरे संग ही चलना है तुझे
संकलन स्रोत बीबीसी हिंदी
इप्टा का बड़ा योगदान सार्वजनिक स्पेस में महिलाओं को आगे लेकर आना भी था. बल्कि इप्टा की स्थापना में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली महिला ही थीं- अनिल डी सिल्वा, जो श्रीलंका की थीं और भारत में उन्होंने काफी काम किया.

अपने माता-पिता (नेमिचंद्र जैन-रेखा जैन) के साथ सेंट्रल ट्रूप में रहीं नटरंग पत्रिका की संपादक रश्मि वाजपेयी बताती हैं, ''परंपरागत परिवारों से निकलने के बाद उन्होंने किस तरह अस्वीकार को झेला होगा यह कल्पना करना संभव नहीं है. लड़के-लड़कियां साथ काम करते थे, टूर पर जाते थे, जिस तरह की स्वतंत्रता थी उसके बरक्स आज अधिक संकुचित हो गया है.''
उस समय के माहौल में व्यावसायिक रंगमंच कंपनियों में काम करने वाली महिलाओं को समाज में नीची नज़र से देखा जाता था.
फिर भी इन महिलाओं ने अपनी शर्तों पर मुक्त स्पेस में काम किया. लेकिन इनकी स्वीकार्यता सहज नहीं थी.

चालीस के दशक में ज़ोहरा सहगल, तृप्ति मित्रा, गुल वर्द्धन. दीना पाठक, शीला भाटिया, शांता गांधी, रेखा जैन, रेवा रॉय, रूबी दत्त, दमयंती साहनी, ऊषा, रशीद जहां, गौरी दत्त, प्रीति सरकार जैसे चर्चित अभिनेत्रियों के नाम इप्टा से जुड़े थे.
इप्टा की महिलाओं पर शोध कर रहीं लता सिंह कहती हैं, ''ये महिलाएं राजनीति के रास्ते संस्कृति में आईं. जब संस्कृति और राजनीति जुड़ती है तो ये ताक़त मिलती है. इनके पुरुष साथियों ने भी मदद की. सबसे बड़ी खूबी थी कि संभ्रांत परिवार की इन महिलाओं ने कंफर्ट ज़ोन त्यागकर संघर्ष की इस प्रक्रिया में अपने को डीक्लास भी किया.''

कल्पना साहनी 'द हिंदू' में छपे एक लेख में अपने पिता और लेखक भीष्म साहनी का ज़िक्र करते हुए लिखती हैं कि जब वे अपने भाई बलराज साहनी को समझा-बुझाकर घर वापस लाने के लिए मुंबई आए तो उन्होंने पाया कि पाली हिल के एक छोटे से फ्लैट में तीन परिवार साथ गुज़ारा कर रहे थे.
ये तीनों परिवार संभ्रांत पृष्ठभूमि के थे- चेतन और उमा आनंद, बलराज और दमयंती साहनी, हामिद और अज़रा बट. इसके अलावा देव आनंद और उनके भाई गोल्डी भी वहीं रह रहे थे.

बाद में पृथ्वी थिएटर में काम करने वाली दमयंती अपनी तन्ख्वाह का चेक इप्टा के परिवार को चलाने के लिए इस्तेमाल करती थीं.

इस तरह न सिर्फ अपने परिवार और संस्कार की दहलीज़ लांघना उस समय की स्त्रियों के लिए एक बड़ी चुनौती थी, बल्कि इस नए माहौल में रहना और जीवन गुज़ारना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था.

इस परिवेश में उन्हें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना था. यहां प्राइवेसी या निजी स्पेस की कोई अवधारणा ही नहीं थी. इप्टा के पहले दौर में महिलाओं की सक्रियता प्रस्तुतियों में अपेक्षाकृत अधिक रही। इप्टा ने ना सिर्फ महिलाओं की समस्याओं पर नाटकों का मंचन किया बल्कि इप्टा हमेशा से ऐसी संस्था रही जिसमें महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा दिया गया.


अस्सी के दशक में इप्टा छोटे शहरों में अधिक सक्रिय हुई. पटना इप्टा में रहे श्रीकांत किशोर बताते हैं कि बिहार में पटना के अलावा बेगूसराय, बीहट, सीवान, छपरा, गया, रांची, मुजफ़्फ़रपुर, मधुबनी और औरंगाबाद जैसे शहरों की शाखाओं में महिलाएं अच्छी संख्या में सक्रिय थीं आज बहुत सी ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जो हर स्तर पर तमाम मुश्किलों के बावजूद इप्टा के लिए काम कर रही हैं, उनका मकसद मशहूर होना या पहचान पाना नहीं है.

सीता - स्तुति

Image of Maa Janki
Mata Janki
निज इच्छा मखभूमि ते प्रगटभईं सिय आय।
चरित किये पावन परम बरधनमोद निकाय।
भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी जन हितकारी भयहारी।
अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी जनकदुलारी सुकुमारी।।

सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन कोटि हुताशन द्युतिकारी।
सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै निज-निज कारज करधारी।।

सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना चढ़े बिमाना समुदाई।
बरषहिं बहुफूला मंगल मूला अनुकूला सिय गुन गाई।।

देखहिं सबठाढ़े लोचन गाढ़ें सुख बाढ़े उर अधिकाई।
अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं पायन्ह परहीं हरषाई ।।

ऋषि नारदआये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृप ज्ञानी।
सीता असनामा पूरन कामा सब सुखधामा गुन खानी।।

सिय सनमुनिराई विनय सुनाई सतय सुहाई मृदुबानी।
लालनि तनलीजै चरित सुकीजै यह सुख दीजै नृपरानी।।

सुनि मुनिबर बानी सिय मुसकानी लीला ठानी सुखदाई।
सोवत जनुजागीं रोवन लागीं नृप बड़भागी उर लाई।।

दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ यह सुख लायउँ मनलाई।
अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी बरनि सुचेरी सिर नाई।।

साभार-जानकी -मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 26

कलर्स आफ मिथिला- स्वागतम आलेख

Hamar Pranam अपनेक स्वागत अछि, मिथिलाक भव्य सांस्कृतिक-सामाजिक परम्परा, लोककला, धरोहर, विभूति क' जानकारी, संगहिं मिथिला-म...