एलै नगाड़ा ल' क इप्टा मैदान मे


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इप्टा : एक परिचय
लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटक लेखक आओ, हाथ से और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वंय को आजादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो”.

25 मई 1943 को मुंबई के मारवाड़ी हाल​ में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने इप्टा की स्थापना के अवसर अध्यक्षता करते हुए ये आह्वान किया.

रंग दस्तावेजके लेखक महेश आनंद के अनुसार इप्टा के रूप में ऐसा संगठन बना जिसने पूरे हिन्दुस्तान में प्रदर्शनकारी कलाओं की परिवर्तनकारी शक्ति को पहचानने की कोशिश पहली बार की. कलाओं में भी आवाम को सजग करने की अद्भूत शक्ति है, को हिंदुस्तान की तमाम भाषाओं में पहचाना गया. ललित कलाएं, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्यरूप, इनके कर्ता, राजनेता और बुद्धिजीवी एक जगह इकठ्ठे हुए, ऐसा फिर कभी नहीं हुआ.” 

इसका नामकरण प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया था. पहले महासचिव अनिल डी. सिल्वा ने उद्देश्य निश्चित किया जनता में विश्व की प्रगतिशील शक्तियों के साथ मिलकर साहस और निश्चय के साथ अपने दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष का उत्साह पैदा करेतथा उसमें यह विश्वास बनाये रखे कि एकजुट ताकत के रूप में वह अजेय है”. इसका नारा था पीपल्स थियेटर स्टार्स पीपल

बंगाल कल्चरल स्क्वाड और सेंट्रल ट्रुप
बंगाल-अकाल पीड़ितो की राहत जुटाने के लिये स्थापित बंगाल कल्चरल स्कवाडके नाटकों जबानबंदीऔर नबान्नकी लोकप्रियता ने इप्टा के स्थापना की प्रेरणा दी. मुंबई तत्कालीन गतिविधियों का केंद्र था लेकिन बंगाल, पंजाब, दिल्ली, युक्त प्रांत, मलाबार, कर्णाटक, आंध्र, तमिलनाडु में प्रांतीय समितियां भी बनी.
स्क्वाड की प्रस्तुतियों और कार्यशैली से प्रभावित होकर बिनय राय के नेतृत्व में ही इप्टा के सबसे सक्रिय समूह सेंट्रल ट्रुपका गठन हुआ. दल के सदस्य एक साथ रहते जो भारत के विविध क्षेत्रों विविध शैलियों से संबंधित थे. इनके साहचर्य ने स्पीरीट आफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मोर्टल’, कश्मीर आदि जैसी अद्भूत प्रस्तुतियों को जन्म दिया. जिसने भारत के अनेक हिस्सों की यात्रा की.

इप्टा में कौन थे?
एम. के रैना. लिखते हैं कि उस दौर में नाटक संगीत, चित्रकला, लेखन, फिल्म से जुड़ा शायद ही कोई वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी होगा जो इप्टा से नहीं जुड़ा होगा’.

पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दमयंती साहनी, चेतन और उमा आनंद, हबीब तनवीर, शंभु मित्र, जोहरा सहगल, दीना पाठक इत्यादि जैसे अभिनेता, कृष्ण चंदर, सज्जाद ज़हीर, अली सरदार ज़ाफ़री, राशिद जहां, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे लेखक, शांति वर्द्धन, गुल वर्द्धन, नरेन्द्र शर्मा, रेखा जैन, शचिन शंकर, नागेश, जैसे नर्तक रविशंकर, सलिल चौधरी, जैसे संगीतकार, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मखदुम मोहिउद्दीन, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन जैसे गीतकार, विनय राय, अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख, दशरथ लाल जैसे लोक गायक, चित्तो प्रसाद, रामकिंकर बैज जैसे चित्रकारपी.सी. जोशी जैसे नेता.

इप्टा का बिखराव
आजादी के बाद से ही इप्टा की सरकार ने निगरानी शुरू कर दी. इसके नाटकों को प्रतिबंधित किया गया, सेंसर और ड्रामेटिक पर्फ़ार्मेंस एक्ट का डंडा चला कर कई प्रदर्शनों और प्रसार को रोका गया. सदस्य भूमिगत होने लगे. ऐसे माहौल में इलाहाबाद कांफ्रेस में बलराज साहनी ने व्यंग्य नाटक जादू की कुर्सीका मंचन किया जिसमें सत्ता के चरित्र की तीखी आलोचना थी.
पी.सी. जोशी के बाद बी.टी. रणदीवे भाकपा के महासचिव बने. पार्टी की नीतियां और इप्टा के प्रति उसका रवैया बदला. इप्टा में बहुत से ऐसे लोग भी थे जो पार्टी मेंबर नहीं थे. उन्हें अब बंधन का अनुभव हुआ और वे इप्टा छोड़ने लगे. शान्तिवर्धन, रविशंकर, अवनिदास गुप्त, शचिन शंकर, नरेन्द्र शर्मा ने सेंट्रल टृप छोड़ दिया था जिसे अंततः मार्च 1947 में बंद कर दिया गया था.
हबीब तनवीर के अनुसार सन 1948 की इलाहाबाद कांफ़्रेंस इप्टा की मौत थी जिसका जनाजा निकला 1956 में. कई बार हैरत होती है क्या काम किया था इप्टा ने और कैसे खतम हो गया चुटकियों में”.

रूस्तम भरूचा रिहर्सल आफ रिवोल्युशनमें लिखते हैं इप्टा पहला राष्ट्रीय संगठित आंदोलन था जिसमें भारतीय रंगकर्मियों ने पहली बार सहभागिता से फ़ासीवाद और साम्राज्यवाद विरोध की ठोस कलात्मक अभिव्यक्ति की और समकालीन रंगमंच के सस्ते व्यावसायिक चमक दमक के विरूद्ध प्रतिक्रिया की. इसने रंगमंच के प्रति उपलब्ध समझ को बदला और इसे अभिजात वर्ग के सीमित हिस्से से निकालकर बड़े तबके तक पहूंचा दिया”.
इप्टा ने पारंपरिक रूपों तमाशा, जात्रा, बर्रकथा को नाट्य भाषा में शामिल किया. किसानों, मजदूरों के संघर्षों, हिंदू मुस्लिम एकता के प्रति जागरूकता को अपने विषय में शामिल किया और समूह गान, नृत्य नाटिका, मंच नाटक, नुक्कड़ नाटक के जरिये जनता पहूंची.

आज़ादी के बाद जो पुनर्गठन हुआ उसमें कई लोग इसलिए भी शामिल नहीं हुए कि इप्टा से सीख एवं प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी संस्थाएं भी शुरू कर दी थीं। वर्तमान में इससे पैदा हुए अनगिनत लोग विभिन्न प्रमुख संगठनों, संस्थानों आदि के विभिन्न पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं अथवा संगठन चला रहे हैं, परन्तु अफसोस यह है कि इस संगठन को सहयोग देना तो दूर उन्हे अब इसका नाम लेने में भी शर्म आती है।

इप्टा का पुनर्गठन
राजनीतिक रंगमंच और वैकल्पिक जन मनोरंजन की इस विरासत की तरफ़ अस्सी के दशक में युवा रंगकर्मी आकर्षित हुए. पटना के रंगकर्मी जावेद अख्तर खां याद करते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ का उभार, आपातकाल के बाद के माहौल, नुक्कड़ नाटकों की लोकप्रियता ने यह जरूरत महसूस कराई की इप्टा का पुनर्गठन होना चाहिये. 1985 में आगरा और 1986 में हैदराबाद में कांफ़्रेंस हुआ. इसके बाद कई शहरों में इसकी इकाईयों का गठन हुआ. अभी इप्टा बहुत से शहरों में काम कर रही है. साथ ही बिहार के लगभग सभी जिलों में इसकी शाखा सक्रिय है तथा जन जागरण के साथ वहां के स्थानीय सांस्कृतिक एवं सामाजिक परम्पराओं के विकास एवं सम्मान के लिए कार्यरत हैं।

इप्टा में महिलाएंः मेरे संग ही चलना है तुझे
संकलन स्रोत बीबीसी हिंदी
इप्टा का बड़ा योगदान सार्वजनिक स्पेस में महिलाओं को आगे लेकर आना भी था. बल्कि इप्टा की स्थापना में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली महिला ही थीं- अनिल डी सिल्वा, जो श्रीलंका की थीं और भारत में उन्होंने काफी काम किया.

अपने माता-पिता (नेमिचंद्र जैन-रेखा जैन) के साथ सेंट्रल ट्रूप में रहीं नटरंग पत्रिका की संपादक रश्मि वाजपेयी बताती हैं, ''परंपरागत परिवारों से निकलने के बाद उन्होंने किस तरह अस्वीकार को झेला होगा यह कल्पना करना संभव नहीं है. लड़के-लड़कियां साथ काम करते थे, टूर पर जाते थे, जिस तरह की स्वतंत्रता थी उसके बरक्स आज अधिक संकुचित हो गया है.''
उस समय के माहौल में व्यावसायिक रंगमंच कंपनियों में काम करने वाली महिलाओं को समाज में नीची नज़र से देखा जाता था.
फिर भी इन महिलाओं ने अपनी शर्तों पर मुक्त स्पेस में काम किया. लेकिन इनकी स्वीकार्यता सहज नहीं थी.

चालीस के दशक में ज़ोहरा सहगल, तृप्ति मित्रा, गुल वर्द्धन. दीना पाठक, शीला भाटिया, शांता गांधी, रेखा जैन, रेवा रॉय, रूबी दत्त, दमयंती साहनी, ऊषा, रशीद जहां, गौरी दत्त, प्रीति सरकार जैसे चर्चित अभिनेत्रियों के नाम इप्टा से जुड़े थे.
इप्टा की महिलाओं पर शोध कर रहीं लता सिंह कहती हैं, ''ये महिलाएं राजनीति के रास्ते संस्कृति में आईं. जब संस्कृति और राजनीति जुड़ती है तो ये ताक़त मिलती है. इनके पुरुष साथियों ने भी मदद की. सबसे बड़ी खूबी थी कि संभ्रांत परिवार की इन महिलाओं ने कंफर्ट ज़ोन त्यागकर संघर्ष की इस प्रक्रिया में अपने को डीक्लास भी किया.''

कल्पना साहनी 'द हिंदू' में छपे एक लेख में अपने पिता और लेखक भीष्म साहनी का ज़िक्र करते हुए लिखती हैं कि जब वे अपने भाई बलराज साहनी को समझा-बुझाकर घर वापस लाने के लिए मुंबई आए तो उन्होंने पाया कि पाली हिल के एक छोटे से फ्लैट में तीन परिवार साथ गुज़ारा कर रहे थे.
ये तीनों परिवार संभ्रांत पृष्ठभूमि के थे- चेतन और उमा आनंद, बलराज और दमयंती साहनी, हामिद और अज़रा बट. इसके अलावा देव आनंद और उनके भाई गोल्डी भी वहीं रह रहे थे.

बाद में पृथ्वी थिएटर में काम करने वाली दमयंती अपनी तन्ख्वाह का चेक इप्टा के परिवार को चलाने के लिए इस्तेमाल करती थीं.

इस तरह न सिर्फ अपने परिवार और संस्कार की दहलीज़ लांघना उस समय की स्त्रियों के लिए एक बड़ी चुनौती थी, बल्कि इस नए माहौल में रहना और जीवन गुज़ारना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था.

इस परिवेश में उन्हें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना था. यहां प्राइवेसी या निजी स्पेस की कोई अवधारणा ही नहीं थी. इप्टा के पहले दौर में महिलाओं की सक्रियता प्रस्तुतियों में अपेक्षाकृत अधिक रही। इप्टा ने ना सिर्फ महिलाओं की समस्याओं पर नाटकों का मंचन किया बल्कि इप्टा हमेशा से ऐसी संस्था रही जिसमें महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा दिया गया.


अस्सी के दशक में इप्टा छोटे शहरों में अधिक सक्रिय हुई. पटना इप्टा में रहे श्रीकांत किशोर बताते हैं कि बिहार में पटना के अलावा बेगूसराय, बीहट, सीवान, छपरा, गया, रांची, मुजफ़्फ़रपुर, मधुबनी और औरंगाबाद जैसे शहरों की शाखाओं में महिलाएं अच्छी संख्या में सक्रिय थीं आज बहुत सी ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जो हर स्तर पर तमाम मुश्किलों के बावजूद इप्टा के लिए काम कर रही हैं, उनका मकसद मशहूर होना या पहचान पाना नहीं है.

सीता - स्तुति

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Mata Janki
निज इच्छा मखभूमि ते प्रगटभईं सिय आय।
चरित किये पावन परम बरधनमोद निकाय।
भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी जन हितकारी भयहारी।
अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी जनकदुलारी सुकुमारी।।

सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन कोटि हुताशन द्युतिकारी।
सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै निज-निज कारज करधारी।।

सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना चढ़े बिमाना समुदाई।
बरषहिं बहुफूला मंगल मूला अनुकूला सिय गुन गाई।।

देखहिं सबठाढ़े लोचन गाढ़ें सुख बाढ़े उर अधिकाई।
अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं पायन्ह परहीं हरषाई ।।

ऋषि नारदआये नाम सुनाये सुनि सुख पाये नृप ज्ञानी।
सीता असनामा पूरन कामा सब सुखधामा गुन खानी।।

सिय सनमुनिराई विनय सुनाई सतय सुहाई मृदुबानी।
लालनि तनलीजै चरित सुकीजै यह सुख दीजै नृपरानी।।

सुनि मुनिबर बानी सिय मुसकानी लीला ठानी सुखदाई।
सोवत जनुजागीं रोवन लागीं नृप बड़भागी उर लाई।।

दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ यह सुख लायउँ मनलाई।
अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी बरनि सुचेरी सिर नाई।।

साभार-जानकी -मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 26

कलर्स आफ मिथिला- स्वागतम आलेख

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Hamar Pranam
अपनेक स्वागत अछि,
मिथिलाक भव्य सांस्कृतिक-सामाजिक परम्परा, लोककला, धरोहर, विभूति क' जानकारी, संगहिं मिथिला-मैथिली विकास आ प्रतिष्ठाक लेल स्वयंके समर्पित केनिहार सांस्कृतिक कर्मी, लेखक, चित्रकार, सामाजिक-सांस्कृतिक मंडली, युवा शक्ति आदि केर जानकारी आ एहि सब सं जुड़ल  किछू बेवसाइट, ब्लागक लिंक केर एकटा मंच पर संयोजित करबाक एकटा प्रयास। 
Colors of Mithila

मिथिला पावन भूमि के अनगिनत विभूति, जनकवि, जन संगठनलोक कलाकार,  रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिनमें से कुछ के सिर्फ नाम ही हम जानते हैं. साथ ही कई ज्ञात-अज्ञात व्यक्तित्व तथा धरोहर हैं जिनका जीवन, व्यक्तित्वउपलब्धि की जानकारी हमें नही है। इनमें से कुछेक​ की जीवनीउनके गतिविधियां, प्रयास, उपलब्धि  विभिन्न वेबसाइटब्लॉग्स आदि पर संजोए गये हैंपरंतु सभी रंग एक साथ आसानी से एक ही साइट पर संयोजन के प्रयास की कुछ कमी है और इस व्यस्त समय में इसे सर्च करते रहना भी उबाऊ लगता है.

दूसरी तरफ ऐसे कई लोग हैं जो इस पावन मिथिला की सांस्कृतिक-सामाजिक विषयों पर अपने स्तर से कई प्रयास और नवसृजन कर तो रहे हैं परंतु उनके विचार,  अनुभव तथा पहल सभी तक पहुंच नहीं पा रही है- क्योंकि इन्हें आनलाईन मीडिया की निरंतर बढती ताकत में स्वयं को जोड़ने की जानकारी, सजगता एवं सही मंच की जानकारी की कमी है। इन्हीं पहलुओं एवं कमियों को कुछ हद तक पूरा करने की सोच के तहत 'कलर्स आफ मिथिला' ब्लाग के साथ फेसबुक पेज एवं 'मिथिला यूनिटी ग्रुप' आपको समर्पित है। इस मंच पर आप मिथिला क्षेत्र से जुड़े किसी भी मुद्दे​ पर अपनी नई जानकारीअपने कार्य, अनुभव, साकारात्मक  विचार, आलेख आदि कुछ आसन प्रकिया को पूरा कर रख सकते हैं और सभी तक पहुंचा सकते हैं।-

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हमारी इस छोटी सी पहल में अभी काफी कमियां हैं जिसे आपके सुझावप्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन से और बेहतर बनाने की कोशिश जारी रहेगी।-
मिथिला नगरी देश हमर अछिसुन्दर आ विशाल यौ
अप्पन भाषा भेष हमर अछिदुनियामे कमाल यौ ।
मिथिला सन पावन धरती, आओर कोनो ने धाम यौ।
एहन रितिप्रीति कतऽ, पावए दोसर ठाम यौ ।
                            (सी पवन कुमार)

अहांके आशीर्वाद/मार्गदर्शन​क अपेक्षा ​क संग -
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मिथिला चित्रकला (पेटिंग): भूत, वर्त्तमान आ भविष्य

Mithila Image
गामक घर आँगनमे  मिथिला चित्रकला

आलेख- डॉ.  कैलाश कुमार मिश्र
 

परिचय -
५००० वर्ष पुरान भारतीय संस्कृति अपन आगामी पीढ़ी के परंपरा, आधुनिकता आ मूल्य प्रणालीक संयोजन सँ युक्‍त दिव्य मस्तिष्क देलक, जे समयक गति , बेर बेर भेल विदेशी हमला आ जनसंख्या मे पैघ वृद्धिक बावजूदो नीक सँ राखल गेल अछि। ई हुनका लोकनि कें विशिष्ट व्यक्‍तित्व देलक। २० वीं सदी अनेको क्षेत्र मे महत्वपूर्ण रहल आ एहि संबंध मे कलाक उल्लेख सेहो कएल जा सकैछ। २०वीं सदी मे बनल गीत, नाचक रूप, साहित्यिक काज आ कलाक काज मे नव अभिव्यक्ति आयल आ ई बात साबित भऽ गेल जे ई सदी नहि केवल मानवक इतिहास मे महान रहल वरन नव आविष्कार आ तेज नवीकरणक अवधि सेहो रहल। जहन कि कलाक सभ रूप पर्याप्त उपलब्धि प्रदर्शित कयलक, सिनेमा, पॉप म्यूजिक आर टेलीविजन वृतचित्र एहेन नव कला रूप सेहो आविष्कृत आ लोक- प्रिय भेल। मिथिला चित्रकला (पेंटिंग) जे मधुबनी चित्रकला (पेंटिंग) क रूप मे सेहो जानल जाईत अछि। मूल रूप सँ एहि क्षेत्रक सभ जाति आ समुदायक महिला द्वारा बनाओय जाइत अछि। एहि देशक महिला अति प्राचीन समय सँ विभिन्न रूपक रचनात्मकता मे स्वयं के संलग्न रखलनि। हुनक रचनात्मकताक सभ सँ नीक चीज प्रकृति, संस्कृति आ मानव मनोवृतिक बीच सम्बंध आछि। ओ ओही सामग्रीक उपयोग केलनि जे हुनका लग पास मे पर्याप्त मात्रा मे उपलब्ध छल। लोक चित्रकला आ कलाक आन रूपक माध्यम सँ ओ अपन इच्छा, सपना, आकांक्षा के व्यक्‍त कलनि आ अपन मनोरंजन सेहो केलनि। इ समानान्तर साक्षरता थिक, जेकरा द्वारा ओ लोकनि अपन सौंदर्यविषयक अभिव्यक्ति के व्यक्त केलनि । हुनक रचनात्मक कला स्वयं मे लिखनाईक शैली मानल जा सकैत अछि, जेकरा द्वारा हुनक भावना, आकांक्षा, वैचारिक स्वतंत्रता आदिक अभिव्यक्ति होइत अछि । हुनक पृष्ठभूमि, प्रेरणा, आशा, सौंदर्य विषयक सजगता, संस्कृति ज्ञान आदि हुनक सभ संभव कला मे व्यक्‍त भेल । हुनक कलाक विषय मे लिखबा आ गप्प करबा सँ पहिने हुनक आंतरिक संस्कृतिक स्तर आ सिखबाक तरीकाक विषय मे जानब आवश्‍यक अछि। ई आलेख महिला के केन्द्र बिन्दु मे राखि कें लिखल गेल अछि । 

एहि देशक कोनो क्षेत्र महिला रचनात्मकता सँ फ़राक नहि अछि । हम पंजाब मे फ़ुलकारी, गुजरात मे वारली, लखनऊ मे चिकन कशीदाकारी, उत्तर मे बुनाई, बंगाल मे कंथा, राजस्थान मे लघु चित्रकला, बिहारक मिथिला क्षेत्र मे सुजनी आ केथरीक रूप मे मिथिला चित्रकला (पेंटिंग) क उदाहरण देखैत छी । 

मिथिला पेंटिंग एहि क्षेत्रक महिला लोकनिक जीवंत रचनात्मक काज अछि। ई मुख्यत: मिथिलाक ग्रामीण महिला द्वारा कागज, कपड़ा, बन- बनायल पोशाक आदि पर चित्रित कएल गेल प्रसिद्ध लोकचित्र अछि। मूलत: ई मुसलमान सहित सभ जाति आ समुदायक महिला द्वारा प्राकृतिक रंग सँ देबार आ सतह पर बनाओल गेल लोकचित्र थिक। बाद मे किछ लोक एहि मे रूचि लेलनि आ महिला लोकनि के अपना कला कें देबार आ सतहक अलावा कैनवास पर उतारबाक प्रेरणा देलनि आ एहि रूप मे एहि कला कें कला जगत मे आ बाजार मे पहचान भेटलैक। एहि लोक कलाक अपन इतिहास, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, महिलाक एकाधिकार आ विशिष्ट क्षेत्रीय पहचान अछि। मिथिला कतय अछि ? एहि भूमिक सांस्कृतिक अ ऐतिहासिक महत्व की अछि ? इ कला मिथिला मे विशेष रूपें किएक अछि ? एहि कला रूपक विषय मे किछु लिखबा सँ पहिने एहि प्रश्‍न समक उत्तर अपेक्षित अछि । 

भारतक पैघ शहर आ आधुनिक दुनिया सँ दूर एक सुंदर क्षेत्र अछि जे कहियो मिथिलाक रूप मे जानल जाईत छल । ई पूर्वी भारत मे स्थापित पहिल राज्य छल । ई क्षेत्र उत्तर मे नेपाल, दक्षिण मे गंगा, पश्‍चिम मे गंडक आ पूब मे बंगाल धरि पसरल मैदानी भाग अछि। वर्तमान बिहारक चंपारण, सहरसा मुजफ़्फ़रपुर, वैशाली, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, सुपौल, समस्तीपुर, मुँगेर, बेगूसराय, भागलपुर आ पूर्णियाँ जिलाक भाग मिथिला अछि। ई पूर्णत: समतल अछि। एकर माटि दोमट अछि जे गंगा नदी द्वारा आनल गेल अछि। यदि मानसून मे विलंब भेल या कम वर्षा भेल तँ फ़सल मे रूकावट अबैत अछि। लेकिन यदि पानिक देवताक कृपा भेल तँ पूरा मैदन हरियरे हरियर रहैत अछि। मधुबनी पेंटिंगक हृदय स्थली अछि । एहि क्षेत्रक सघन हरियाली प्राचीन दर्शक लोकनि कें ततेक आकर्षित कयलक जे ओ एहि क्षेत्र के मधुबनी (मधुक जंगल ) कहलनि। आब इ जिला पेंटिंगक लेल सब सँ बेसी जानल जाइत अछि। एहि पौराणिक क्षेत्र मे राम (अयोध्याक राजकुमार आ विष्णुक अवतार) सीता सँ वियाह केलनि। सीताक जन्म हुनक पिता जनक द्वारा हर (हल) जोतबाक समय भेल । मिथिला ओ पवित्र भूमि अछि जतय बौद्ध धर्म आ जैन धर्मक संस्थापक आ संस्कृत शिक्षाक छह परंपरागत शाखाक विद्वान जेना कि याज्ञवल्क्य, वृद्ध वाचस्पति, अयाची मिश्र, शंकर मिश्र, गौतम, कपिल, सचल मिश्र, कुारिल भट्ट आ मंडन मिश्रक जन्म भेलनि । १४ वीं सदीक वैष्णव कवि विद्यापतिक जन्म मिथिला मे भेल जे अपन पदावलीक माध्यम सँ एहि क्षेत्र मे राधा आ कृष्णक बीचक संबंधक व्याख्या करैत प्रेम गीतक नव रूप के अमर बना देलनि । इएह कारण अछि जे लोक हुनका जयदेवक पुनर्जन्म रूप मे (अभिनव जयदेव ) स्मरण रखलक । कर्णप्योर (बंगालक एकटा शास्त्रीय संस्कृत कवि) अपन प्रसिद्ध भक्‍तिमय महाकाव्य "पारिजात हरण" मे मिथिलाक लोकक विद्वताक चित्रण केलनि। कृष्ण अमरावती सँ द्वारका जेबाक मार्ग मे एहि भूमिक ऊपर सँ उड़ैत काल सत्यभामा सँ कहलनि, "कमलनयनी ! देखू ई मिथिला थिक, जतय सीताक जन्म भेल। एतय विद्वान लोकनिक जीह पर सरस्वती सगर्व नचैत छथि (मिश्र, कैलाश कुमार २०००) " । मिथिला एकटा अद्‍भुत क्षेत्र अछि जतए कला आ विद्वता, लौकिक आ वैदिक व्यवहार दुनू पूर्ण सौहार्द्र सहित संग संग चलैत अछि ।

पृष्ठभूमि
भारतक विविधता जेकाँ एकर लोक कला एहि देशक बहुविध संस्कृति के विभिन्न रंग द्वारा प्रदर्शित करैत अछि। ई कला (पेंटिंग) लोक कलाक समुद्रक रूप मे मानल जाइत अछि, जाहि मे प्राचीने समय सँ लोकप्रिय कला रचना भारतीय उपमहाद्वीपक हर भाग सँ अबैत रहल । भारतक कला मध्य मिथिला पेंटिंगक अपन महत्वपूर्ण स्थान अछि । मिथिला मे महिला देबार, सतह, चलायमान वस्तु आ कैन्वस पर पेंटिंग करैत छथि, माटि सँ देवता, देवी] जानवर आ पौराणिक पात्रक प्रतिमा बनबैत छथि; सिक्‍की घास सँ टोकरी, छोट- छोट वरतन और खिलौना बनबैत छथि, केथरी आ सुजनी बनेबाक रूप मे कशीदाक काज करैत छथि, वभिन्न तरहक धार्मिक आ काजक चीज बनबैत छथि । ई कलाक काज महिला द्वारा दैनिक काजक रूप मे कएल जाइत अछि, जे हुनका पूर्ण रचनात्मक व्यक्ति, एकटा गायक, मूर्तिकार, चित्रकार, कशीदाकार आ सभ किछु बनबैत अछि । पीढ़ी दर पीढ़ी मिथिलाक महिला विभिन्न विशिष्ट पेंटिंग बनेलनि अछि । 

चर्चा 
मिथिला मे सामान्यतया पेंटिंग महिला द्वारा तीन रूप मे कएल जाइत अछि : सतह पर पेंटिंग, देबार पर पेंटिंग आ चलायमान वस्तु पर पेंटिंग। प्रथम श्रेणी मे अरिपन अबैत अछि जे सतह पर अरबा चाऊर (कच्चा चावल) क लई सँ बनायल जाईत अछि। सतहक अलावा एकरा केरा आ मैना पात आ पीढ़ी पर सेहो बनाओल जाइत अछि। एकरा दहिना हाथक आँगुरक प्रयोग सँ बनाओल जाइत अछि। तुसारी पूजा (कुमारि लडकी द्वारा नीक पतिक कामना सँ शिव और गौरी के प्रसन्न करबाक लेल त्योहार) क अरियन उज्जर, पीयर आ लाल रंगक चाऊरक चूर्ण सँ बनाओल जाइत अछि । विभिन्न अवसरक लेल विभिन्न तरह क अरिपन होईत अछि । अष्टदल, सर्वतोभद्र दशयत आ स्वास्तिक एकर मुख्य प्रकार अछि । देबार परहक पेंटिग अनेको रंगक होईत अछि । एहि मे मुख्यत: तीन सँ चारि रंगक प्रयोग होईत अछि। एहि मे नयना जोगिन, पुरैन, माँछक भार, दही, कटहर, आम, अनार आदिक गाछ आ चिड़ै जेना सुग्गाक चित्र बनाओल जाइछ । चलायमान वस्तु पर पेंटिंग मे शामिल अछि माटिक बरतन, हाथी, सामा-चकेबा, राजा सलहेस, बाँसक आकृति, चटाई, पंखा आ सिक्‍की सँ बनल वस्तु। एहि मे सँ कतेक पेंटिंग तांत्रिक महत्वक अछि। विवाह समारोहक दौरान किछु अवैदिक प्रथाक सेहो पालन सिर्फ़ महिला द्वारा कएल जाइत अछि जेना ठक- बक, नयना- जोगिन आदि, जे मिथिला तंत्र सँ संबंधित अछि । 

देवार परहक पेंटिंग आ सतह परहक पेंटिंग जे घर के सुन्दर बनेबाक लेल आ धार्मिक उद्देश्‍य सँ कएल जाईत अछि, महाकाव्य युग सँ चलि रहल अछि । तुलसीदास अपन महान काव्य रामचरितमानस मे सीता आ रामक वियाहक अवसर पर कएल गेल मिथिला पेंटिंंगक वर्णन केलनि अछि । राम आ सीतक सुंदर जोड़ी सँ प्रभावित भऽ कऽ गौरी वियाहक समारोह मे भाग लेलनि आ कोहबरक चित्रण करय चाहलनि जतय सुमंगलीक कें एहि आदर्श जोड़ीक लेल गीत आ संबंधित विध व्यवहार करक छलनि । एहि चित्रण मे परंपरागत चित्र, हिन्दू देवी- देवताक चित्र आ स्थानीय जीव-जन्तु आ वनस्पतिक चित्र बनाओल जाइत अछि । महिला कलाकार एहि कलाक एकमात्र अभिरक्षक छथि, जे ई चित्रण करैत छथि आ पीढ़ी दर पीढ़ी ई माय सँ बेटी के हस्तांतरित भऽ जाइत अछि । ओ एहि कला रूप कें प्राचीन समय सँ बचा कें रखने छथि । लड़की ब्रश आ रंग सँ नेने सँ काज करब शुरू करैत छथि जेकर पराकाष्ठा कोहवर में देखल जा सकैछ । वियाह सँ संबंधित सभ धार्मिक समारोह कोहबर मे होइत अछि। अहिवातक पातिल के चारि दिन लगातार जरा कऽ राखल जाइत अछि। मिथिला पेंटिंग (मधुबनी पेंटिंग) क वर्तमान रूप देबार पेंटिंग, सतह पेंटिंग केर कागज आ कैंपस पर रूपांतरण थिक । ई प्रयोग बहुत पुरान नहि अछि । २०वीं सदीक साठिक दशक मे भयंकर अकालक चुनौती कें सामना करक लेल महिलाक लेल काजक अवसर निमित्त किछु महिला लोकनि देबार आ सतह परहक अपन कला कें कागज या कैनवस पर उतारब शुरू केलनि। प्रारंभ मे एकरा देखवला कम लोक छल परन्तु बाद मे एहि मे वृद्धि भेल । एहि काज मे महिला लोकनि कें खूब सफ़लता भेटल आ व्यवसायक एकटा नव मार्ग खूजल। ताहि समय सँ पेंटिंग मे विविधता आएल अछि। देबार पेंटिंग के हाथ सँ बनल कागज पर हस्तांतरित कएल गेल आ धीरे- धीरे ई आन स्थान यथा ग्रीटिंग कार्ड, ड्रेस, सनमाइका आदि पर सेहो उतरल। नीक चित्रांकन, चमकदार स्वदेशी रंग, सभ संभव स्वदेशी प्रयोग आदि सँ पूरा दुनियाक दर्शक आकर्षित भेलाह। प्रारंभ मे किछु ब्राह्मण महिला कें एहि कला कर्मक अवसर देल गेल परन्तु १० वर्षक बाद किछु कार्यस्थ महिला एक नव रीतिक संग एहि क्षेत्र मे एलीह । एखन धरि हरिजन महिला एहि क्षेत्र मे नहि आयल छलीह । सीता देवी मिथिला पेंटिंगक ब्राहमण स्टाइल कें आगाँ बढ़ेलीह । एहि मे मुख्यत: कोहबर और देवी देवताक चित्र छल । बौआ देवी आ हुनक बेटी सरिता सेहो एहि क्षेत्र मे अपन पर्याप्त योगदान देलनि । 
कायस्थ महिला एहि क्षेत्र मे सेहो आगाँ अएलीह आ सतरिक दशक मे हुनक पहचान बनल । ओ लोकनि गाम आ धार्मिक दृश्‍य के पेंटिंग मे स्थान देलनि। गंगा देवी, पुष्पा कुमारी, कर्पूरी देवी, महासुन्दरी देवी आ गोदावरी दत्त प्रमुख कायस्थ महिला कलाकार छलीह । एहि दुनू वर्गक महिला कलाकार लोकनिक प्रयास सँ मिथिला कला कें मूर्त रूप भेटल ।

तेसर समूह हरिजन महिला १९८० क दशक मे आगाँ अयलीह। दुसाध आ चमार जातिक महिला लोकनि परंपरागत पेंटिंग क प्रयोग अपन धार्मिक काज आ घर-वार सजेबाक लेल करैत छलीह। ओ लोकनि गोदना आ अन्य चमकदार रंगक प्रयोग अपन पेंटिंग मे करय लगलीह। बाद मे एहि मे लाईन, तरंग, वृत आदि सेहो जुड़ि गेल। जमुना देवी आ ललिता देवी प्रसिद्ध हरिजन कलाकार भेलीह । ओ लोकनि पेंटिंग मे दैनिक जीवनक वस्तु जातक सेहो चित्रण करय यगलीह । आब तँ सभ जातिक लोक एहि कलाक उपयोग जीविका अर्जन निमित्त करैत छथि ।

सभ कलाकर लोकनि रंगक लेल मुखयतया प्रकृति पर निर्भर करैत छथि । ओ लोकनि माटि, छाल, फ़ूल , जामुन सँ कतेको प्राकृतिक रंग निकालैत छथि । रंग मुख्यत: लाल, नीला, हरिहर, कारी, हल्कापीयर, गुलाबी आदि होईत अछि । प्रारंभ मे घर मे बनाओल गेल रंग सँ काज चलैत रहल तथापि एहि विद्य सँ प्राप्त रंगक मात्रा कम होईत छल आ तें महिला लोकनि बाजार मे उपलब्ध रंगक प्रयोग करब सेहो शुरू केलनि । 

कोहबरक चित्रांकन पौराणिक , लोकगाथा आ तांत्रिक प्रतीक पर आधारित अछि। कोहबरक चित्रण नव जोड़ाक कें आशीषक निमित्त कएल जाईछ। एहि पेंटिंग मे सीताक वियाह या राधा कृष्णक चित्रांकन अछि। शक्‍ति भूमि हेबाक कारणें मिथिला पेंटिंग मे शिव, शक्‍ति, काली, दुर्गा, हनुमान , रावण आदिक चित्रण सेहो भेटैत अछि। उर्वरता आ संपन्नता प्रतीक यथा माछ, सुग्गा, हाथी, काछु, सूरज, चन्द्रमा, बाँस, कमल आदिक चित्रांकन प्रमुखता सँ होइत अछि। एहि पेंटिंग मे देवताक स्थान बीच मे आ हुनक प्रतीक, वनस्पति आदिक स्थान पृष्ठभूमि मे रहैत अछि । 

वाणिज्यीकरण सँ एहि कला कें नोकसान पहुँचल अछि । महिला आ पुरूष एहि कला के शहर आ नगरक बाजार सँ सीखि रहल छथि । प्रशिक्षण देनिहार स्वयं एहि कलाक तत्व आ सौंदर्य सँ अनभिज्ञ छथि। किछु गोटा तँ रंगक संयोजीकरण, प्रकृति सँ एकर प्राप्ति, पृष्ठभूमिक निर्माण, लय, रंग, गीत, विधि, नृत्य सँ एकर संबंध आ पेंटिंगक ढ़ंग सँ सेहो अपरिचित छथि । पेंटिंगक विषय बा डिजाइन आब अधिकांश मामिला मे खरीददार द्वारा निर्णीत होइत अछि। खरीददार केन्द्रित पहल एहि महान कला रूपक रंग, डिजाइन, मूल, संवेदना आदि पर खतरा अछि। हम देखैत छी जे तांत्रिक पेंटिंगक नाम पर महिला मिथिलाक परंपरा सँ बहुत अलग किछु बनवैत छथि । वाणिज्यिकरण सँ बहुतो पुरूष कलाकार सेहो एहि मे रुचि लेब शुरू केलनि अछि । ओ एहि मे महिलाक महत्व कें बुझने बिना पेंटिंग करैत छथि। ओ मिथिला पेंटिंगक नाम पर खरीदनाहारक जरूरतिक मोताबिक किच्छो पेंटिंग करक लेल तैयार रहैत छथि । 

लेकिन जहन हम लोक आ परंपरागत पेंटिंगक रूप मे मिथिला पेंटिंगक गप करैत छी, जे धार्मिक अवसर पर बनाओल जाइछ या भारतक कोनो धार्मिक पेंटिंगक गप करैत छी तँ हम देखैत छी जे एहि मे कतेको कार्यकलाप जूड़ल अछि। ई संयोजन वस्तुत: कला कें विशेष महत्व दैत अछि। अवधारणा आ अनुभवक आधार पर देखला सँ सभ स्थानीय, क्षेत्रीय, अखिल भारतीय आ भारत सँ बाहर कलाक अभिव्यक्ति आंतरिक मन सँ उभरैत देखाइत अछि आ जीवनक एकटा अभिन्न अंग अछि। पेंटिंग, गीत, नृत्य, कविता आ आन कार्यात्मक चीज कें पौराणिक कथा, धार्मिक रीति, त्योहार आ संस्कार सँ अलग कऽ कऽ नहि देखल जा सकैत अछि । जहन एकटा पेंटर देबार या सतह कें पेंट करैत रहैत छथि तँ अन्य महिला लोकनि गीत गाबि कऽ हुनका मददि करैत छथिन। लोक कथा सँ लेल गेल ज्ञान सेहो हुनका पेंटिंगक लेल विषय प्रदान करैत अछि। तांत्रिक पेंटिंग वस्तुत: मधुश्रावणीक कथा पर आधारित अछि । आ एहिना पेंटिंग आ आन कलाक संबंध कतेको लोक कला सँ अछि । 

एकटा महिला जहन देबाल पर चित्रांकन करैत छथि तँ ओ कतहु सँ आर्थिक लाभक आशा नहि करैत छथि । तथापि जहन ओ अपन पेंटिंग के बेचबाक लेल बनबैत छथि तँ हुनक पूरा ध्यान संस्कृति सँ ग्राहक दिस चलि जाईत अछि । तहन ओ परंपरा के जीवित रखबाक लेल पेंटिंग नहि करैत छथि, वरन जीविकाक लेल पेंटिंग करैत छथि । मिथिला सँ जीविकाक निमित्त सतत पलायन सेहो एहि पेंटिंग के बाहर अनलक अछि आ बाजार मे एकरा नव खरीददार भेटलैक अछि । 

किछु चित्रकार अर्थात कर्पूरी देवी, गंगा देवी आ जमुना देवी अपन खरिददारक जरूरतक अनुसार पहल केलनि अछि । गंगा देवी अपन पेंटिंग मे रामायण चित्र के उतार लनि अछि । गंगा देवी मधुबनी सँ अपन यात्रा शुरू केलनि । ओ इलाजक निमित्त दिल्ली एलीह। ओ अपन पेंटिंग मे रेलगाड़ी, डॉक्टर, अस्पताल, सीरिंज, मेडिकल वार्ड सभ किछुक चित्रांकन केलनि। हुनक पहल अनेको तरह सँ विशिष्ट छल । किछु लोक हुनक आलोचना केलनि जे एहि सँ मिथिलाक लोक चित्रांकन के हानि होएत, तठापि बहुतो लोक हुनक समर्थन केलनि ।

जमुना देवी आ हुनक भाई मितर राम चमकीला रंगक स्टाइलक विकास केलनि, जेकर बराबरी मिथिला कला मे नहि अछि । ओ स्वयंभू कलाकार छथि आ जानवर जेना कि गाय आदिक चित्रण सँ आनंदित होईत छथि। हुनक चित्रण परिपाटी सँ स्वतंत्र अछि। तथापि ओ रंगक प्राप्ति, कैनवासक पृष्ठभूमिक निर्माण, सजीव चित्रांकन आदि मे परंपराक पालनक प्रति दृढ़ छथि ।

इ चित्रकार लोकनि भूकंप, नदी आ आन कोनो वस्तुक चित्रांकन करैत छथि, जे ग्राहक हुनका सँ चाहैत छथि । जितवारपुर आ राँटी गाम मे मिथिला पेंटिंग वाणिज्यिक कार्यकलापक रूप मे उभरल अछि। जहन हम हाले मे जितवारपुर गेलहुँ तँ देखलहुँ जे जमुना देवी १५ सँ बेसी छात्र के, जे हरिजन सँ लऽ कऽ ब्राह्मण परिवार सँ छल, पढ़बैत छलीह। पुछला पर ओ उत्तर देलनि, "हम एकरा सभ के माय जेना पढ़बैत छियैक। ई सभ एहिठाम अपन घर जेकाँ अनुभव करैत अछि । हम एकरा सभ सँ कोनो फीस नहि लैत छियैक । अगर हम फीस लेबैक तँ हमर कला गंदा भऽ जायत। सब सँ उत्तम पुरस्कार हमरा लेल इ अछि जे जहन कोनो ब्राह्मण लड़की अपन प्रशिक्षण पूरा केलाक बान हमर पयर छुबैत अछि तँ हम ओकरा हृदय सँ आशीष दैत छियै आ एकटा प्रमाणपत्र सेहो दैत छियैक।"

मिथिला पेंटिंग कला सँ उपर अछि। एहि रचनात्मक क्षमता सँ महिलाक एक समूह अपन इच्छा, सपना, आकांक्षा, आशा आदि कें व्यक्त करैत छथि। यदि अहाँ हुनका सँ पुछबनि जे की कऽ रहल छी तँ उत्तर भेटत "गहबर या कोहबर लीखि रहल छी"। हुनका लोकनिक लेल हुनक स्टाइल एक तरहक लिपि थिक, जेकरा माध्यम सँ ओ पुरुष समुदाय या दुनियाक बाँकी लोक सँ संवाद करैत छथि। ओ कलात्मक लेखक छथि जे अपन भावना के पेंटिंगक माध्यम सँ लिखैत छथि। वस्तुत: ओ सृजनकर्ता आ ईश्वरक समीप छथि। आर्थिक युगक कारणें यद्यपि किछु पुरुष-पात सेहो एहि क्षेत्र मे उतरलह अछि, परंतु मूलत: आईयो ई महिलाक रचना थिक ।

निष्कर्ष
यदि भरत नाट्यम, मनिपुरी, कुचीपुड़ी, ओडिसी आ सतरिया नृत्य के मूल रूप मे रखैत दिनानुदिन लोकप्रिय कएय जा स्कैत अछि, तँ एहि महान लोक चित्रकला के मूल रूप मे किएक ने राखय जा सकैत अछि? कला वस्तु के बेचनाई खराब नहि थिक, तथापि खरीददारक समक्ष कलाक संपूर्ण परंपरागत रचनात्मकता आ मूल्यक समर्पण ठीक नहि थिक। मिथिला पेंटिंगक मूल रूप मे बचा दऽ रखबाक लेल गभीर चिन्तनक आवश्यकता अछि। अन्वेषणकर्ता, गैर सरकारी संगठन पेशेवर, लोक कलाकार आ संबंधित व्यक्ति के एहि कलाक मौलिकता बचेबाक लेल एकजुट भऽ जेबाक चाही।

प्रदर्शित आलेखक सर्वाधिकार रचनाकार आ संग्रहकर्त्ताक लगमे छन्हि।
कलर्स आफ मिथिला

पं० मधुकर नहि रहलाह - मैथिली भक्ति साहित्य केर एक युगक अन्त

Image of Madhukar
Baba Madhukar 
Sradhanjali Baba
https://colorsofmithila.blogspot.in/

सैकड़ों शिव आ दुर्गा भक्तिक लोकप्रिय गीतक रचनाकार बाबा नीलकंठक परम उपासक मैथिली भाषा-साहित्य केर स्रष्टा पंडित मिथिलाक पं० मधुकान्त झा मधुकर
26 अप्रैल 2017 क 95 वर्षक उम्र मे दिवंगत भ गेलाह।
अप्रतिम शिव-भक्त आ संस्कृत एवं मैथिली भाषा-साहित्य केर स्रष्टा पंडित मधुकान्त झा ‘मधुकर’ केर जन्म सहरसा जिलाक चैनपुर गाम एक साधारण गृहस्थ परन्तु अत्यन्त शिक्षित-सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार मे 19 जनबरी, 1924 ई. केँ भेलनि। हिनक पिता स्वरूपलाल झा आ माता छेदनी देवी केर निरंतर प्रयास सँ शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कयलनि तथा शिक्षक बनिकय लोकप्रियता हासिल कएलनि। अपन शिक्षण पेशाक संग लेखन मे सेहो महारत हासिल करैत कतेको रास रचनाक प्रकाशन सेहो करौलनि, आरो कतेक रास रचना हाल धरि अप्रकाशित छन्हि।

अपन गाम केर पारंपरिक धर्म-संस्कृति केँ संवर्धन-प्रवर्धन हेतु नीलकंठ कमरथुआ संघ केर स्थापना कएलनि। प्रत्येक वर्ष गाम सँ सुल्तानगंज होएत बाबा बैद्यनाथ धाम तथा बाबा वासुकिनाथ धरिक कामर यात्रा केर संचालन भेल जे आइ धरि ओहि इलाकाक सर्वथा राष्ट्रीय आयोजनसमान मनाओल जा रहल अछि। 
समाजसेवा मे सेहो बाबाक योगदान अविस्मरणीय अछि। केकरो बच्चा अशिक्षित नहि रहि जाय, ताहि प्रति पूर्ण संकल्पक संग अपनहि लंग राखिकय निर्धन सँ निर्धन छात्र तक केँ शिक्षा दियौलनि। आइ बाबाक शत-प्रतिशत शिष्य देश भरि मे उच्च स्थान पर कार्यरत छथि आर बाबा प्रति अनुराग मे किनको कहियो कमी नहि देखल गेल। कतेको रास शिक्षक, प्रोफेसर आदि बाबाक सिखायल गुर अनुरूप अपनो लब्ध-प्रतिष्ठित स्थान पर सुशोभित होयबाक सुख बाबा केँ सेहो अपन आजन्म तपस्याक फल स्वरूप देखाएत रहल छन्हि।
1968 सँ 1974 धरि मधुकर बाबा आकाशवाणीक पटना केन्द्र मे सेहो अपन योगदान प्रवचन विभाग मे देलनि। हुनकर श्रोता ओना तऽ एक सँ बढिकय एक लोक छलाह लेकिन ताहि समयक सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता कर्पुरी ठाकुर हुनक देल नित्य सीख केँ ग्रहण कएनिहार नियमित श्रोता मे सर्वाधिक चर्चत छलाह। 1948 मे कहरा प्रखंड केर उद्घाटनकर्ताक रूप मे सेहो मधुकर बाबा केँ स्मरण कैल जाएछ।
बाबाक प्रकाशित रचना मे समाज सौगात, नवीन नचारी, अभिनव नविन नचारी, मधुकर माधुरी, नीलकंठ मधुकर पदावली शामिल अछि। तहिना नारद भक्ति सूत्र केर मैथिली अनुवाद संग समाचरित शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी एवं मधुकर नीलकंठ षटकम् (संस्कृत) आ नीलकंठ एकादशत्व (संस्कृत) सेहो प्रकाशित रचना मे शामिल अछि।
कलर्स आफ मिथिला

मिथिलाक्षर মিথিলাক্ষর -मिटबाक कगार पर हमर सांस्कृतिक धरोहर

किसी क्षेत्र का परिचय उस क्षेत्र के पहनावाउनके खानपानपरम्परा के साथ अगर उस क्षेत्र के परिचय को कोई​ स्थापित करता है-वह है वहाँ की भाषा एवं लिपि। भाषा सहजता से बोध कराता है कि अमुक व्यक्ति किस जगह का है। 1961 के जनगणना के अनुसार 1652 भाषा मातृभाषा में दर्ज किया गया जो 1971 के जनगणना में मात्र 109 ही रह गया। यह आँकड़ा काफी शर्मनाक है कि हम अपनी मातृभाषा एवं लिपि को भूल रहे हैं।   
Mithilakshar
मिथिलाक्षर सिखू
ऐसे भाषाओं की संख्या काफी कम है जिसकी अपनी स्वतंत्र लिपि हो। इस मामले में मैथिली सौभाग्यशाली है जिसकी अपनी स्वतंत्र लिपि है। इसे कभी वैदेही लिपि कहा गया तो कभी तिरहुता परन्तु वर्तमान में इसे मिथिलाक्षर के नाम से जाना जाता है। 

परन्तु हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर मिथिलाक्षर को जानने वाले कितने लोग हैं? ब्राह्मी लिपि से निकले मिथिलाक्षर व बंगला में काफी सामानता के कारण लोगों को मिथिलाक्षर एवं बंगला लिपि में भ्रम होता है परन्तु मैथिल अगर भ्रम करने लगे तो आश्चर्य​ होता है। 

मिथिलाक्षर का प्रचलन घटने पर विभिन्न मंचों पर विद्वानों द्वारा चिन्ता की जाती रही है। अतीत में इसके विकास के लिए कुछ प्रयास भी किये गए। इसी प्रयास के तहत मैथिली के प्रथम इतिहासकार डा0 जयकान्त मिश्र ने मिथिलाक्षर सिखाने हेतु पुस्तिका प्रकाशित किये थे। अखिल भारतीय मैथिली साहित्य परिषद दरभंगा द्वारा भी मिथिलाक्षर अभ्यास पुस्तिका प्रकाशित किया गया। 

प्रति वर्ष जानकी नवमी पर कई संस्थाऐं/संगठन मैथिली के विकास के लिए संकल्प लेते तो हैं परन्तु उनके संकल्प सभा में मिथिलाक्षर बिना चर्चा के रह जाते हैं। इस लिपि के विकास के लिए ना ही अब तक कोई ठोस योजना बनी और न ही निष्पक्ष ढंग से कोई गंभीर जमीनी प्रयास ही किया गया। स्थिति यह है कि अब पुरानी रचनायें ही मिथिलाक्षर में रह गये हैं जो विभिन्न संग्राहलयों एवं पुस्तकालयों के आलमीरा की शोभा बढ़ा रहे हैं।

सन् 1920 के करीब महाराजा रामेश्वर सिंह ने दरभंगा महाराज के सभी कार्यो की दस्तावेज को मिथिलाक्षर के बजाय लोगों के सहूलियत के लिये देवनागरी लिपि में लिखवाना शुरु कर दिया। यहीं से इस लिपि का ह्रास का एक प्रमुख कारण माना जाता है। जानकारों का कहना है कि कठिन लिपी होने के कारण अब लोग इससे विमुख हो गए और देवनागरी को ही आधार बना लिया। 

उल्लेखनीय है कि पड़ोसी देश नेपाल के रामवरण यादव ने राष्ट्रपति पद हेतु मैथिली में शपथ ग्रहण किया और उस देश में अभी भी मैथिली को द्वितीय राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। तो दूसरी ओर मिथिलांचल​ के प्रसिद्ध जन नेता भोगेन्द झा द्वारा सर्वप्रथम भारतीय संसद में मैथिली में शपथ ग्रहण कर मिथिला-मैथिली को गौरांवित किया।

लेकिन इसे विडंबना ही कही जाएगी कि जिस भाषा को भारतीय संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है उस भाषा की लिपि ही लिखावट से गायब हो रही है।
साहित्य अकादमी द्वारा मैथिली को साहित्यिक भाषा का दर्जा 1965 से हासिल है। 22 दिसंबर 2003 को भारत सरकार द्वारा मैथिली को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल किया गया है और नेपाल सरकार द्वारा मैथिली को नेपाल में दूसरे स्थान में रखा गया है।
जारी .................

जनकवि नागार्जुन “यात्री” - खड़ी हिंदी केर अंतिम महाकवि

Nagarjun Yatri
Jankavi Nagarjun

देश हमारा भूखा-नंगा घायल है बेकारी से,
मिले न रोटी-रोजीभटके दर-दर बने भिखारी से,
स्वाभिमान सम्मान कहां हैहोली है इंसान की,
बदला सत्य अहिंसा बदली लाठीगोलीडंडे है,
निश्चय राज बदलना होगा शोषक नेताशाही का,
पद-लोलुपता दलबंदी का भ्रष्टाचार तबाही का.
1952 ई. धरि पत्नी संगमे घुमैत रहलथिन्ह, फेर तरौनीमे रहए लगलीह। यात्रीजी बीच-बीचमे आबथि। अपराजितासँ यात्रीजीकेँ छह टा सन्तान भेलन्हि, आऽ सभक सभ भार ओऽ अपना कान्ह पर लेने रहलीह।

यात्रीजी दमासँ परेशान रहैत छलथि। जे.पी.क सम्पूर्ण क्रान्तिक विरुद्ध सेहो जेलसँ बाहर अएलाक बाद लिखलन्हि यात्रीजी। नागार्जुन यायावरी प्रकृतिके व्यक्ति छलाह। ढक्कन, मिसिर, बाबा, वैदेह, यात्रीके उपनामसं जानै वाला रचनाकार नागार्जुन के यदि अनन्त पथक पथिक कहल जाय त अत्युक्ति नहिं होयत।

नागार्जुन मूलतः मैथिल भाषी छलाह। यात्री नामसँ मैथिलीमे कविता लिखैत छलाह। मैथिलीमे अपन कविता संग्रह लेल 1968 मे हुनका 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' सँ सम्मानित कएल गेल। नागार्जुनक उपन्यास में मिथिलाक शस्य-श्यामल भूमि, जन-जीवन के आधार बनायल गेल आ एकरा माध्यम सँ नवीन समाजवादी चेतनाक सशक्त अभिव्यक्ति प्रदाल केलनि।

यात्रीजी मैथिलीमे बैद्यनाथ मिश्र "यात्री" केर नामसँ रचना लिखलन्हि। पृथ्वी ते पात्रं१९५४ ई. मे वैदेहीमे प्रकाशित भेल छल, हमरा सभक मैट्रिकक सिलेबसमे छल। मैथिली भाषी साहित्य बाबा नागार्जुन के वैदेहक नामसं सेहो याद करैत रहल अछि। देहसं मुक्त सबहक मनके पीड़ा समझै वाला, अनन्त पथक पथिक वास्तवमे वैदेहही भ सकैत अछि- मिथिलाक माइटसं उपजल माइटक खुश्बू के जन-जन तक पहुँचाबै वाला  कवि। नागार्जुनक कविता संघर्षशील मनुष्यक सुख-दुख के दर्शाबैत अछि-

सामन्त आ जमींदारक विरुद्ध आ मजदूर वर्गक समर्थनमे रचल हिना रचना अपन भीतर एकटा संसार क रचैत अछि। एकटा एहन संसार जतय आम आदमी के पक्षधरता छैय।

नागार्जुनक पहिल मैथिली उपन्यास पारो’ (1946) बेमेल विवाहक शिकार पार्वती (पारो) के  कथाक माध्यम सं मिथिलाक रूढ़िग्रस्त सामाजिक परंपरा पर चोट करैत अछि आ ओकर दुष्परिणामक उजागर करैत छयi

घुमक्कड़ प्रवृतिक नागार्जुन स्वभावसँ विद्रोही छलाह। जीवनक सादगी, सरलता, स्पष्टवादिता आ खुललपन नागार्जुनक व्यक्तित्व के आंतरिक पक्षक मूलभूत विशेषता छल। अभाव आ गरीबी के चक्कर मे पीसी हुनकर व्यक्तित्व स्वाभिमानी बनल। स्वभाव सँ पढयमे रुचि रहबाक कारणे ई संस्कृत, पालि, मगधी, तिब्बती, मराठी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी, सिंधी, अंग्रेजी आदि भाषाक ज्ञाता बनलाह।

विज्ञापनक एहि युगमे नागार्जुन यात्री प्रचारसँ दूर रहलाह आ पठन चिंतन आ मनन मे व्यस्त रहि साहित्य निमित जुड़ल रहलाह।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर नागार्जुनके काव्य-कला आ स्पष्टवादिताक प्रशंसक छलाह। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदीके दिनकर जी एकटा पत्र लिखने रहैथ कि- 'नागार्जुनक गरीबी हमरा आब देखल नहि जायत अछि प्रण लेलउँ की हुनका लेल किछुने किछु व्यवस्था जरुर करब।............ '

साहित्यक एहि अथक साधक, अपन लेखनीसं सतत साहित्य रचनामे लीन, सामाजिक सरोकारके शिद्द्तसं जन-जन क अवगत करा ओकरा निरन्तर सजग करैय वाला साहित्य सिपाही बाबा नागार्जुन जी के 5 नवम्बर 1998 क दरभंगा ज़िलामे ख़्वाजा सराय मे देहावसान भ गेलैन आ हिन्दी साहित्य रचनाशीलतामे एकटा प्रयोगधर्मा-युग कवि विश्वमे अपन एहन अनोखा-अलग-अमिट छाप अंकित कय दैहिक तौर पर ओचिर शान्त भ गेलैथ मुदा हुनकर व्यापक रचना संसार साहित्य प्रेमी-साधक कय सदिखन झकझोड़ैत रहत। एहि तरहें अगर समय बदलि गेल​ त नागार्जुनक कविता/रचना हर वर्गक लोक सबके प्रभावित करैत रहत आ प्रासंगिक बनल रहत. ई चिंता आ अवधारणा व्यर्थ अछि की समय-काल बदललाक संगहि बाबाक कविता अप्रासंगिक भ जायत।
                     (स्त्रोत:विभिन्न आलेख)
प्रकाशित कृति
हिन्दी साहित्य: युगधारा, प्यासी पथराई आँखे, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाँ, भूल जाओ पुराने सपने, हज़ार हज़ार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, तुमने कहा था, आख़िर ऐसा क्या कह दिया मैंने, मैं मिलट्री का बूढ़ा घोड़ा, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या:ऐसे भी तुम क्या, पका है कटहल, इस गुब्बारे की छाया में, भस्मासुर, अपने खेत में, भूमिजा। बलचनमा, रतिनाथ की चाची, कुम्भीपाक, उग्र तारा, जमनिया का बाबा, वरुण के बेटे, नई पौध, पारो, बाबा बटेश्वर नाथ, दुःख मोचन, आसमान में चाँद तारे,
नागार्जुन रचनावली : सात खण्डों में संकलित

संस्कृत कविताएँ:- लेनिन स्तोत्रम्, देश देशकम्, शीते वितस्ता, चिनार-स्मृतिः, डल झीलमिजोरम, भारत भवनम्
बांग्ला- भावना प्रवण यायावर, अघोषित भारे, भाबेर जोनाकि, आमार कृतार्थ होय छी, आमि मिलिटारिर बूड़ोघोड़ा, निर्लज्य नाटक, की दरकारनाम-टाम बलार
मैथिली:- पत्रहीन नग्न गाछ,(काव्य संग्रह), हीरक जयन्ति,(उपन्यास)
बाल साहित्य:-कथा मंजरी: भाग एक, कथा मंजरी भाग:दो, मर्यादा पुरुषोत्तम, विद्यापति की कहानियाँ,
व्यंग्य:- अभिनन्दन
निबंध संग्रह:- अन्तहीनम क्रिया हीनम।
अनुवाद : गीतगोविन्द, मेघदूत।
संस्मरण- एक व्यक्ति एक युग (निराला)
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कलर्स आफ मिथिला- स्वागतम आलेख

Hamar Pranam अपनेक स्वागत अछि, मिथिलाक भव्य सांस्कृतिक-सामाजिक परम्परा, लोककला, धरोहर, विभूति क' जानकारी, संगहिं मिथिला-म...